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संत पापा फ्रांसिस आमदर्शन समारोह में संत पापा फ्रांसिस आमदर्शन समारोह में 

संत पापाः प्रार्थना में भटकाव की औषद्धि सतर्कता

संत पापा फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह में प्रार्थना में होने वाले भकटाव पर प्रकाश डालते हुए जीवन की शुष्कता का सामना करने हेतु ऊपाय बतलायें।

दिलीप संजय एक्का-वाटिकन सिटी

वाटिकन सिटी, बुधवार, 19 मई 2021 (रेई) संत पापा फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर वाटिकन के संत दमासुस प्रांगण में उपस्थित सभों का अभिवादन करते हुए कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनों, सुप्रभात।

अपनी धर्मशिक्षा माला को जारी रखते हुए आज की धर्मशिक्षा में हम प्रार्थना में उन सामान्य कठिन अनुभवों की चर्चा करेंगे जिन्हें हमें पहचाने और उन पर विजय प्राप्त करने की जरूरत है। प्रार्थना करना हमारे लिए सहज नहीं है, प्रार्थना करने में हमारे लिए बहुत सारी कठिनाइयाँ आती हैं। हमें उन्हें जानने और पहचाने की आवश्यकता है जिससे हम उनका समाना कर सकें।

प्रार्थना में मन भटकना

प्रार्थना करने के संबंध में सबसे पहली कठिनाई भटकाव है (सीसीसी 2729)। संत पापा ने कहा कि हम प्रार्थना करना शुरू करते हैं और हमारा मन सारी दुनिया का चक्र लगाना शुरू करता है, वहाँ हम अपने मन और हृदय को पाते हैं, यह प्रार्थना में भटकाव है। प्रार्थना का सह-अस्तित्व बहुधा भटकाव के साथ है। वास्तव में, मनुष्य का मन किसी एक विचार में लम्बे समय तक बने रहने में कठिन अनुभव करता है। हम सभी सदैव कल्पनों और मोहमायाओं के भंवर का अनुभव करते हैं जो निंद्र में भी हमारे साथ चलते हैं। हम सभी जानते हैं कि इस अव्यवस्था में बने रहना हमारे लिए अच्छा नहीं है।

एकाग्रता की जरुरत  

एकाग्रता में बने रहने का संबंध केवल प्रार्थना से संबंधित नहीं है। यदि कोई व्यक्ति अपने में प्रार्याप्त एकाग्रता की स्थिति को प्राप्त नहीं करता तो वह लाभकारी अध्ययन नहीं कर सकता है और न ही ठीक से कोई कार्य ही। खिलाड़ीगण इस बात से अवगत हैं कि प्रतियोगिताओं में विजय केवल शारीरिक प्रशिक्षण से प्राप्त नहीं की जाती वरन उन्हें मानसिक अनुशासन की जरुरत होती है, उसके भी बढ़कर वे कैसे एकाग्रता और अपने लक्ष्य में ध्यान क्रेन्दित किये रहते हैं।

भटकाव की औषद्धि “सतर्कता”

भटकाव अपने में दोषपूर्ण नहीं हैं लेकिन हमें उनसे लड़ने की आवश्यकता है। हमारे विश्वास की निधि में एक गुण है जिसे हम बहुधा भूल जाते हैं, जिसे सुसमाचार हमारे लिए प्रस्तुत करता है। यह “सतर्कता” कहलाती है। येसु कई बार इसका जिक्र करते हुए कहते हैं “सतर्क रहो, प्रार्थना करते रहो”। काथलिक कलीसिया की धर्मशिक्षा प्रार्थना के संबंध में विशेष रूप से इसका जिक्र करती है (2730)। येसु सदैव अपने शिष्यों को उनके प्रेरितिक जीवन में इस बात से सतर्क कराते हैं कि उनके स्वामी देर-सवेर, एक दूल्हे की भांति विवाह भोज से या अपनी एक यात्रा से लौट कर आयेंगे। लेकिन हम सभी उनके आने की घड़ी को नहीं जानते हैं, हमारे जीवन की हर घड़ी हमारे लिए कीमती है और हम उसे भटकाव में बर्बाद न करें। हम उस समय को नहीं जानते जब हमें ईश्वर की पुकार सुनाई देगी, उस दिन वे सेवक अपने में धन्य होंगे जिन्हें स्वामी अपने उन कार्यों में उद्यमी पायेंगे जो सही अर्थ में हमारे लिए जरुरी हैं। वे अपने को दुनियावी बातों में उलझा हुआ नहीं पाते जो उनके चित्त में उभर कर आती हैं बल्कि अपने नेक कार्यों को करते हुए उस राह में बढ़ने की कोशिश करते हैं जो सही है। प्रार्थना में भटकाव के बारे में संत तेरेसा कहती हैं कि यह “घर में एक पागल नारी” की तरह है जो भकटती रहती है। हमें उसे रोकना और ध्यान के पिंजरे में बंद करना है।

हृदय की शुष्कता, जीवन में धुंधलापन

संत पापा ने कहा कि सूखेपन का समय हमारे लिए एक अलग शिक्षा देती है। धर्मशिक्षा इसके बारे में कहती है, “यह हृदय का ईश्वर से अलगाव है, जहाँ विचारें, यादें और भावनाएं यहाँ तक की आध्यत्मिक बातों में कोई स्वाद नहीं है। यह हमारे लिए विश्वासपूर्वक येसु ख्रीस्त की पीड़ा और कब्र में विश्वास के साथ चिपके रहने का क्षण है” (2731)। हमारा सूखापन हमें पुण्य शुक्रवार की याद दिलाता है, पुण्य शानिवार के उस रात की जब येसु हमारे साथ नहीं हैं, वे मर कर कब्र में हैं, हम अपने को अकेला पाते हैं। यही हमारी शुष्कता की जननी है। हम बहुत बार नहीं जानते कि हमारी शुष्कता का कारण क्या है, यह स्वयं हमारे कारण उत्पन्न होती है, लेकिन यह ईश्वर से भी आती है जो हमारे आंतरिक और वाह्य जीवन में ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न करते हैं। यह हमारे लिए कई बार सिर दर्द या हृदय दर्द का कारण बन सकती है जो हमें प्रार्थना करने से रोकती है। हम बहुत बार अपने सूखेपन का कारण नहीं जानते हैं। आध्यात्मिक गुरू विश्वास के अनुभव को सांत्वना और वीरानी के क्षणों का उतार-चढ़ाव कहते हैं, कभी सभी चीजें हमारे लिए सहज लगती तो वहीं कभी-कभी हम बहुत ही भारीपन का अनुभव करते हैं। संत पापा जीवन की शुष्क परिस्थिति का जिक्र करते हुए कहा कि बहुधा जब हम अपने किसी मित्र के साथ मिलते तो हम कहते हैं कि “मैं आज निराश हूँ।” हम अपने जीवन में बहुत बार हताश हो जाते हैं जीवन के वे क्षण हमारे लिए धुंधले होते हैं। लेकिन इससे भी खतरनाक हमारे लिए हृदय का धुंधला होना है क्योंकि ऐसा होने से हम बीमार हो जाते हैं। बहुत से लोग हैं जो धुंधले हृदय से जीवनयापन करते हैं। यह अपने में भयानक है। आप धुंधले हृदय से आध्यात्मिक जीवन के सूखेपन में आगे नहीं बढ़ सकते हैं। हमारे हृदय को खुला और चमकीला होने की जरुरत है जिससे ईश्वर का प्रकाश उसमें प्रवेश कर सके। और यदि ऐसा नहीं होता तो हमें आशा में बने रहते हुए इंतजार करने की जरुरत है। लेकिन हम अपने हृदय को धुंध में बंद न करें।

ढ़ीलाई, आत्मा के मौत का कारण

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि एक दूसरी चीज हमारे लिए ढ़ीलाई है जो हमारी दूसरी कमजोरी है, यह हमारे प्रार्थनामय जीवन के लिए एक असल परीक्षा है, यह सामान्य रुप से ख्रीस्त जीवन के विरूद्ध है। सुस्तीपन एक तरह से हताशी की निशानी है जो तपस्या के अभ्यास को कम करती, सतर्कता को घटाती, हृदय में लापरवाही लाती है (2733)।” यह सात महापापों में से एक है क्योंकि यह धोखे में हमारी आत्मा को मौत की ओर ले जा सकती है।

जीवन में आगे बढ़ते जायें

उत्साह और निराशा के इस क्रम में हम क्या कर सकते हैं? हमें सदैव आगे बढ़ने हेतु सीखने की जरुरत है। आध्यात्मिक जीवन में सच्चा विकास बहुसंख्यक आनंद में आगे बढ़ना नहीं है लेकिन यह जीवन की कठिन परिस्थितियों में सुदृढ़ बने रहना है। हमें आगे बढ़ना और बढ़ते जाना है। यदि हम थक गये हैं तो थोड़ा आराम करना और पुनः आगे बढ़ना है लेकिन हमें सुदृढ़ता में ऐसा करते जाना है। हम आस्सीसी के संत फ्रांसिस के दृष्टान की याद करें जो सर्वश्रेष्ट खुशी के बारे में कहते हैं, यह स्वर्ग से बरसी हुई अनंत किस्मत नहीं है जो एक तपस्वी की क्षमता से मापी जाती है बल्कि यह निरंतर आगे बढ़ना है, यहाँ तक कि उस परिस्तिथि में भी जब हमें कोई पहचान नहीं मिलती है, यहाँ तक कि जब लोग हमें प्रताड़ित करते हैं और यहाँ तक की पहले की सारी चीजों का स्वाद अपने में खत्म हो गया है। सभी संतों को “अंधेरी घाटी” से होकर गुजरना पड़ा, हम उनकी जीवनगाथा को पढ़ते हुए ठोकर न खायें क्योंकि उन्होंने अपने जीवन के निरस परिस्थिति में उत्साहविहीन जीवन जीया। हम यह कहना सीखें, “यद्यपि, तू हे ईश्वर, उन सारी चीजों को करता जो तूझ पर मेरे विश्वास को खत्म करते हैं, मैं फिर भी तेरे पास प्रार्थना करता रहूंगा”। विश्वासी प्रार्थना करना कभी नहीं छोड़ते हैं। हमारी प्रार्थना कभी-कभी योब की प्रार्थना समान लगती है जो ईश्वर के कार्यों को स्वीकार नहीं करता और अपने लिए न्याय की मांग करता है। लेकिन बहुधा ईश्वर के समाने विरोध करना भी प्रार्थना करने की तरह ही होता है जैसे कि वह बुजूर्ग नारी जो अपने बच्चे को पिता से गुस्सा करते हुए देखती है,“ईश्वर से गुस्सा करना प्रार्थना करने के समान है”। यह पिता के संग हमारे संबंध को दिखलाता है क्योंकि हम उसे पिता के रुप में देखते हैं।  

क्रोध प्रार्थना का रुप

संत पापा ने कहा कि हम भी जो योब के समान कम पवित्र और अधीर हैं इस बात को जानते हैं कि हमारे दुःख भरी परिस्थिति के बाद जहाँ हम उनकी ओर देखते हुए निशब्दों में उन्हें पुकारते हैं, “क्यों”? ईश्वर हमें उत्तर देंगे। हम क्यों प्रार्थना को न भूलें। यह प्रार्थना हमसे तब आती है जब हम बच्चों की भांति चीजों को नहीं समझते, इसे मनोवौज्ञानिक, “क्यों की उम्र” कहते हैं। क्योंकि बच्चे अपने पिता से पूछते हैं, क्यों पिताजी... ? क्यों... ? पिताजी क्यों...? लेकिन हम ध्यान दें, बच्चे पिता के उत्तर को नहीं सुनते हैं। पिता उत्तर देना शुरू करते हैं लेकिन बालक दूसरे क्यों को लेकर आता है। वह पिता की निगाहों को अपनी ओर आकर्षित करना शुरू करता है। जब हम गुस्से में ईश्वर से क्यों का सवाल करने लगते तो हम उनके हृदय को अपनी दुर्दशा की ओर, अपनी कठिनाई की ओर, अपने जीवन की ओर खींचते हैं। हम साहस के साथ ईश्वर को, “लेकिन क्यों... ?” कहें। ईश्वर से थोड़ा क्रोधित होना पिता और पुत्र, बेटी और पिता के बीच, हमारे संबंध को सजीव बनाता है, यह हमारे लिए जरुरी है। वे हमारी कोठर और सबसे कटु पुकार को पितातुल्य प्रेम में स्वीकार करेंगे जिसे वे हमारे विश्वास के कार्य, एक प्रार्थना के रुप में देखते हैं।

इतना कहने के बाद संत पापा फ्रांसिस ने अपनी धर्मशिक्षा माला समाप्त की ओर सबों के संग हे पिता हमारे प्रार्थना का पाठ करते हुए सभों को अपने प्रेरितिक आशीर्वाद प्रदान किया। 

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19 May 2021, 16:12

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