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इराक में 5 से 8 मार्च 2021 को संत पापा फ्राँसिस की प्रेरितिक यात्रा के दौरान मोसुल का दौरा इराक में 5 से 8 मार्च 2021 को संत पापा फ्राँसिस की प्रेरितिक यात्रा के दौरान मोसुल का दौरा  (ANSA)

इराक में युद्ध शुरू होने का 20वाँ वर्षगाँठ :‘कलीसिया ने अपने लोगों को कभी नहीं छोड़ा’

इराक में युद्ध शुरू होने की 20वीं वर्षगांठ पर राष्ट्र के तत्कालीन प्रेरितिक राजदूत बगदाद में अपने समय को याद करते हैं, जहाँ संत पापा जॉन पौल द्वितीय ने उन्हें शांति के दूत के रूप में भेजा था। कार्डिनल फेरनांदो फिलोनी कहते हैं कि इराक में युद्ध उनके जीवन का एक सबसे मुश्किल दौर रहा।

उषा मनोरमा तिरकी-वाटिकन सिटी

वे मध्य पूर्वी देश में युद्ध शुरू होने के ठीक 20 साल बाद वाटिकन न्यूज से बात कर रहे थे, जहाँ उन्होंने 2000 के दशक की शुरुआत में बगदाद में बम विस्फोटों और आत्मघाती हमलों के बीच अपने पद पर रहते हुए प्रेरितिक राजदूत के रूप में कार्य किया था।

कार्डिनल फिलोनी जनवरी 2001 में इराक में वाटिकन के प्रेरितिक राजदूत नियुक्त हुए थे और 20 मार्च 2003 को जब युद्ध शुरू हुआ तो वे इराक स्थित प्रेरितिक राजदूतावास में ही थे।

उन्होंने कहा, “मैं इस अवधि को मेरे जीवन के एक सबसे मुश्किल अवधि के रूप में याद करता हूँ।” यह वह क्षण था, जिसमें न केवल मैं बल्कि धर्माध्यक्ष, पुरोहित, विश्वासी और इराक के लोकधर्मी भी युद्ध को एक अलग दृष्टिकोण से देख रहे थे। वे संत पापा जॉन पौल द्वितीय की याद करते हैं जो अक्सर युद्ध एवं वार्ता द्वारा इसका समाधान करने की संभावना के बारे बोलते थे।

संत पापा जॉन पौल द्वितीय ने शांति की कई अपीलें एवं प्रयासें कीं

संत पापा जॉन पौल द्वितीय ने बरम्बार शांति का आह्वान किया। जब क्षितिज पर युद्ध की हवा चल रही थी, तो उन्होंने परमधर्मपीठ से मान्यता प्राप्त राजनयिक कोर को संबोधित किया और कहा "युद्ध को नहीं! युद्ध हमेशा अपरिहार्य नहीं है। यह हमेशा मानव की हार है।" जब युद्ध अपरिहार्य लगने लगा, तो उन्होंने मध्य पूर्व में शांति के लिए प्रार्थना और उपवास के एक दिन की घोषणा की, जिसको 5 मार्च 2003 को रखा गया।

उसके ठीक 10 दिन बाद 16 मार्च को देवदूत प्रार्थना के दौरान उन्होंने कहा, "इराक की जनता के लिए और मध्य पूर्व क्षेत्र के संतुलन के लिए एक अंतरराष्ट्रीय सैन्य अभियान के जबरदस्त परिणामों के सामने, जो पहले से ही परेशान है, और चरमपंथियों के लिए जो इससे उत्पन्न हो सकते थे, मैं सभी से कहता हूँ: अभी भी बातचीत करने का समय है; शांति के लिए अभी भी जगह है, किसी समझ पर पहुंचने और चर्चा जारी रखने में कभी देर नहीं होती।"

उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और स्पेन को स्पष्ट रूप से नाम लिए बिना याद दिलाया कि वे "संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के प्रसिद्ध सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए, दूसरे सभी शांतिपूर्ण समाधान के समाप्त करने के बाद, बल का प्रयोग अंतिम उपाय के रूप में कर सकते हैं।"

लेकिन इस कल्पना पर कि सद्दाम हुस्सैन के पास “सामूहिक विनाश का हथियार” है, अमरीका के राष्ट्रपति ने बगदाद पर हवाई हमले का आदेश दिया एक सैन्य अभियान की शुरुआत "इराक को निरस्त्र करने के लिए, अपने लोगों को मुक्त करने के लिए, और दुनिया को गंभीर खतरे से बचाने के लिए शुरू हुआ।" अमेरिकी सेना ने कुछ ही हफ्तों में हुसैन के शासन को गिरा दिया और इराक के तथाकथित "सामूहिक विनाश के हथियारों" के साक्ष्य की खोज तेज हो गई। पर हथियार कहीं नहीं मिले। अमेरिकी सेना 8 साल तक इराक में रही। उस दौरान लगभग 4,600 अमेरिकी सैनिक और 2,70,000 इराकी मारे गये, जिनमें से ज्यादातर नागरिक थे।

पोप जॉन पौल द्वितीय की भविष्यवाणी कि [युद्ध] से "चरमपंथी उत्पन्न हो सकते हैं" भयांकर रूप से सच साबित हुई, और असुरक्षा बढ़ गई, उग्रवाद को बढ़ावा मिला। इतिहासकारों का मानना ​​है कि इससे इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) के आतंकी समूह को उत्पन्न होने में मदद मिली और एक युद्ध का मैदान तैयार हुआ जहाँ गृहयुद्ध हो सकता था।

इस्लामिक स्टेट ने इराक और सीरिया दोनों में आक्रमण के बाद सांप्रदायिक तनाव का फायदा उठाया, जिसके कारण अमेरिका को देश से पहली बार हटने के तीन साल बाद इराक में सेना वापस भेजनी पड़ी।

20 साल बाद किसी को निश्चित रूप से पता नहीं है कि इराक में 2003 में अमरीकी हमले के बाद कितने लोग मारे गये हैं और कितने घायल हैं।  

हालाँकि, हम जानते हैं कि आक्रमण शुरू होने के समय से अक्टूबर 2019 तक अमेरिका, उसके सहयोगियों, इराकी सेना और पुलिस, और विपक्षी बलों द्वारा की गई प्रत्यक्ष युद्ध-संबंधी हिंसा से 275,000 और 306,000 के बीच नागरिकों की मौत हुई है। इराक की सहायता और पुनर्निर्माण के लिए 100 बिलियन डॉलर से अधिक की प्रतिबद्धता के बावजूद, देश के कई हिस्से अभी भी स्वच्छ पेयजल और आवास तक पहुंच की कमी से जूझ रहे हैं।

अपरिहार्य को स्वीकार करना

युद्ध के दिनों के बारे में बात करते हुए पूर्व प्रेरितिक राजदूत ने "क्या वास्तव में भयानक" था, उसके बारे कहा कि वार्ता और शांति को बढ़ावा देने का अवसर नहीं होना, और उन्होंने याद किया कि कैसे उन्हें "घातक रूप से युद्ध" को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया।”

उन्होंने कहा, “हमने इस समय को विश्वास का साक्ष्य देते हुए एवं लोगों के प्रति एकात्मकता रखते हुए जीने का प्रयास किया। दिखाने की कोशिश की कि युद्ध की परिस्थिति में क्या किया जा सकता है।”

इन सबके बावजूद कलीसिया टिकी रही

उन्होंने कहा, “उनकी उपस्थिति, एक गवाह के रूप में थी कि कलीसिया ऐसी स्थिति में भी कभी नहीं छोड़ेगी जहाँ चीजें कठिन थीं और जहाँ युद्ध चल रहा था।”

उन्होंने समझाया कि एक प्रेरितिक राजदूत, केवल एक राजदूत की तरह नहीं है जिसका जनादेश द्विपक्षीय संबंधों या व्यावसायिक हितों को बढ़ावा देना होता है: "हम वहाँ एकजुटता के लिए हैं, शांति सुनिश्चित करने के लिए, अधिकारों की रक्षा करने के लिए, ख्रीस्तियों के करीब होने के लिए, काथलिकों के लिए, [अन्य दलों के साथ] संवाद के लिए।"

“यदि हमारी उपस्थिति का वास्तविक कारण ये है तो चाहे युद्ध हो, हम नहीं छोड़ सकते।”

कलीसिया के रूप में हम मानते हैं कि हमें खुद को लोगों के साथ रखना चाहिए। हमें हकीकत में रहना है।”

इसलिए, उनकी टीम ने इराक के लोगों, ख्रीस्तीयों, काथलिकों, अल्पसंख्यकों के समान कठिनाइयों और दुःखों का अनुभव किया। उन्होंने कहा कि "यह, मुझे लगता है, युद्ध की कठिनाई में एक बहुत ही सकारात्मक पहलू था।"

सत्ता के बदलते ही इराक में गहरा बदलाव आया और ख्रीस्तीय गहरे रूप से प्रभावित हुए। सद्दाम हुसैन के शासन काल में कलीसिया का सम्मान किया गया था।"

कार्डिनल ने स्पष्ट किया कि इराक में शताब्दी की शुरुआत में, अधिकांश ख्रीस्तीय खलदेई थे, और फिर ऑर्थोडोक्स थे। उन्होंने कहा कि लातीनी रीति की कलीसिया बहुत छोटी थी, और अन्य अल्पसंख्यक भी थे, इन सभी का सम्मान किया जाता था।

उन्होंने कहा कि यद्यपि यह एक मुस्लिम देश था और ख्रीस्तीयों को धार्मिक स्वतंत्रता नहीं दी गई थी, परन्तु वे स्वतंत्रता थे, जिसका अर्थ है कि मिशनरी गतिविधियों पर प्रतिबंध था लेकिन वे अपने विश्वास को जीने के लिए स्वतंत्र थे, और उनकी विविधता और पहचान में उनका सम्मान था।

अनिश्चितता एवं सवाल

कार्डिनल फिलोनी ने कहा कि धर्माध्यक्षों के साथ अक्सर इस प्रश्न पर चर्चा की जाती थी कि युद्ध के बाद इराक कैसा दिखेगा। "सद्दाम हुसैन के शासन के समाप्त होने की स्थिति में हम किस तरह का रवैया अपनाएंगे?"

उन्होंने इसे धीरे-धीरे "कदम दर कदम" लिया, लेकिन हमेशा लोगों के अधिकार का बचाव किया, इराकी लोगों को आजाद किया, और लोगों के लिए गिरजा जाने के अधिकार को जारी रखा। "हमने यहां होने के लिए कलीसिया के अधिकार का बचाव किया क्योंकि यह इराकी लोगों के जीवन का हिस्सा है।"

जब सत्ता अल्पसंख्यक सुन्नियों से शियाओं के पास चली गई, उन्होंने कहा, स्वतंत्रता की समान गारंटी रखने में सक्षम होने के बारे में कई सवाल पूछे गए। "हमें इस अनिश्चित समय को स्वीकार करना पड़ा और कदम दर कदम आगे बढ़ना था।"

उन्होंने कहा, "हमें बहुत नुकसान उठाना पड़ा, क्योंकि सद्दाम हुसैन के शासन के अंत के बाद [कट्टरपंथी] समूहों द्वारा सबसे पहले हमला उन लोगों पर किया गया, जो ख्रीस्तीय और काथलिक थे।" “गिरजाघरों को नष्ट किया गया और कई लोग शहीद हो गये।”

कार्डिनल फिलोनी ने कहा, “कलीसिया को अनिश्चितता झेलनी पड़ी, और कलीसिया के प्रतिनिधि सत्ता में रहनेवालों से अपील करने में असमर्थ थे: सबसे पहले, क्योंकि समूह किसी भी कानून का सम्मान नहीं करते थे, और दूसरी बात, क्योंकि राज्य और सरकार के पास अपने नागरिकों की रक्षा करने की कोई क्षमता नहीं थी। उन्होंने कहा कि सरकार खुद कई बार निशाने पर आई, "इसलिए वह दूसरों के खिलाफ हमारा बचाव नहीं कर सकी।"

उन्होंने कहा, "हमें रास्ते खोजने थे, कम से कम उन लोगों का बचाव करने के लिए जो ख्रीस्तयाग में जा रहे थे, अतः गिरजाघरों के पास घेरे थे", और यह सुनिश्चित करने के लिए कि जो लोग अंदर आ रहे थे उनके लिए गिरजाघर में नुकसान न हो, जांच करने के लिए सुरक्षा बल थी। “बहुत मुश्किल क्षण रहे।”

कार्डिनल फिलोनी ने कहा कि धीरे-धीरे, चीजों में सुधार हुआ, "हालांकि गिरजाघर अभी भी सैनिकों और पुलिस की निगरानी में हैं, लेकिन स्थिति बेहतर हुई है", विशेष रूप से पोप फ्राँसिस की यात्रा के बाद। "मुझे लगता है कि बेहतर समझ की स्थिति रास्ते पर है।"

देश से ख्रीस्तियों का पलायन

कार्डिनल फिलोनी ने कहा कि इराक में पोप फ्राँसिस की 5 से 8 मार्च 2021 की प्रेरितिक यात्रा एक साधारण यात्रा से कहीं बढ़कर थी: "यह इराक की तीर्थयात्रा थी,  न कि इब्राहीम के पवित्र स्थलों और वहां के कई अन्य नबियों के स्थान का दौरा। यह कलीसिया के अंदर और बाहर कई शहीदों के लिए एक तीर्थयात्रा थी, क्योंकि मुसलमानों सहित हजारों इराकी लोगों ने "बहुत कुछ झेला" है।

पूर्व प्रेरितिक राजदूत ने कहा कि यह एक तीर्थयात्रा थी जिसको संत पापा जॉन पौल द्वितीय करना चाहते थे और यह ख्रीस्तीयों के भविष्य के लिए एक आशा का चिन्ह है। “यदि पोप यहाँ आते तो हमें अब भी भविष्य की उम्मीद होती।”

उन्होंने कहा कि इस नई वास्तविकता पर दिन-ब-दिन निर्माण जारी है, हालांकि उन्हें अधिक उम्मीद नहीं है कि जो चले गए वे कभी वापस जाएंगे।

सुरक्षा में सुधार हो रहा है, फिलोनी ने टिप्पणी की: कुछ मंदिरों और गिरजाघरों का पुनर्निर्माण किया गया है, और कुछ क्षेत्रों में स्थिरता है, लेकिन देश में ख्रीस्तीय उपस्थिति आधे से अधिक है।

"हमें यह सोचना होगा कि कम से कम आधी ख्रीस्तीय आबादी अब इराक में नहीं रह गई है।"

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21 March 2023, 16:58