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संत पापा फ्राँसिस संत पापा फ्राँसिस  (Vatican Media)

ईश्वर का चेहरा गरीबों में, संत पापा

संत पापा फ्रांसिस ने शरणर्थियों और प्रवासियों के संबंध में लम्पेदूसा की अपनी प्रथम प्रेरितिक यात्रा की 7वीं सालगिरह पर वाटिकन के संत मार्था में यूखारिस्तीय बलिदान अर्पित करते हुए गरीबों और प्रवासियों में ईश्वर के चेहरे को खोजने का संदेश दिया।

दिलीप संजय एक्का-वाटिकन सिटी

संत पापा फ्रांसिस ने लम्पेदूसा की अपनी प्रेरितिक यात्रा की 7वीं सालगिरह के अवसर पर संत मार्था में मिस्सा बलिदान अर्पित किया। उन्होंने अपने प्रवचन में कहा कि आज का स्त्रोत भजन हमें ईश्वरीय चेहरे की खोज हेतु आहृवान करता है। “ईश्वर की शक्ति पर निर्भर रहो, उनके दर्शनों के लिए लालायित रहो” (स्त्रो. 104)। यह मनोभाव मानव के रुप में हमारे जीवन की आधारशिला है क्योंकि हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य जीनवदाता ईश्वर से मिलन है।

ईश्वर के दर्शन हेतु लालायित रहना हमारे लिए वह आश्वासन है जो दुनिया में हमारी जीवन यात्रा को सफल बनायेगी। यह प्रतिज्ञात देश की ओर निर्गमन करना है जो हमारे लिए स्वर्ग का राज्य है। हमारे जीवन का लक्ष्य ईश्वर के दर्शन करना है जो उत्तरी दिशा में तारे द्वारा हमारे लिए प्रशस्त होता है।

सम्पन्नता भटकाव का कारण

नबी होशया के ग्रंथ से लिया गया आज का पहला पाठ हमारे लिए हमें इस्रराएलियों के खोने का बात कहता है (10,1-3.7-8.12)। उनकी नजरें प्रतिज्ञात देश से विचलित हो गई थी और वे अधर्म की मरूभूमि में भटक रहे थे। उनका हृदय अपने ईश्वर से दूर चला गया था क्योंकि वे अपने में समृद्ध,धनी और सम्पन्न हो गये थे। इन सारी चीजों ने उनके हृदय को अन्याय और झूठी बातों से भर दिया था।  

मानवीय उदासीनता क्योंॽ

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि यह पाप की स्थिति को बयां करती है जिससे आज आधुनिक परिस्थिति में ख्रीस्तियों में अपने में अछूते नहीं हैं। “आराम की संस्कृति जो हमें केवल अपने आप तक ही सीमित कर देती है, जहाँ हम दूसरो की रूदन के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं, यह हमारे जीवन को साबुन के बुलबले की तरह बना देती जो अपने में सुन्दर है किन्तु मिथ्या है। यह हमारे लिए जीवन को व्यर्थ और क्षणभंगुर बना देता क्योंकि हम दूसरो के प्रति उदासीन बने रहते हैं और हमारी यह उदासीनता वैश्विक होती जाती है। इस वैश्विकता में हम अपने को उदासीनता के कटघरे में गिर पाते हैं। “हम दूसरों के दुःखों के आदी हो गये हैं जो हमें प्रभावित नहीं करती है, हम उनकी कोई परवाह नहीं करते, हमें उनसे कोई सरोकार नहीं होता है”(लेम्पेदूसा 8 जुलाई 2013)।

नबी होशया के शब्द आज हमें अपने में परिवर्तन लाने का आहृवान करते हैं जहां हम अपनी आखों को ईश्वर की ओर उन्मुख करते हुए उनके चेहरे को देखने हेतु बुलाये जाते हैं। नबी कहते हैं, “तुम धार्मिकता बोओ, तो भक्ति लुनोगे, अपनी परती भूमि जोतो, क्योंकि समय आ गया है। प्रभु को तब तक खोजते रहो, जब तक वह आकर धार्मिकता न बरसाये”(10,12)।

ईश्वर से मिलन, कृपा और मुक्ति

ईश्वरीय मुखमंडल को देखना हमारे लिए ईश्वर से व्यक्तिगत रुप में मिलने की चाह को निरुपित करता है जहाँ हम उनके अतुल्य प्रेम और मुक्तिदायी शक्ति का अनुभव करते हैं। आज के सुसमाचार में (मत्ती. 10,1-7) हम बारहों शिष्यों को व्यक्तिगत रुप में येसु ख्रीस्त से मिलते हुए पाते हैं जो मानव बन कर धरती में आये। वे उन्हें, उनकी आंखों में देखते हुए नाम लेकर बुलाते हैं और शिष्य येसु से आंखें मिलते, उनकी बातों को सुनते और उनके आश्चर्यजनक कार्यों को देखते हैं। ईश्वर से व्यक्तिगत मुलाकात हमारे लिए कृपा और मुक्ति का एक समय होता है और हम उसमें एक प्रेरिताई को देखते हैं। येसु उन्हें कहते हैं, “राह चलते यह उपदेश दिया करो, स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है” (7)।

येसु से मिलन संभव

हम जो तीसरी सदी के शिष्य हैं, येसु ख्रीस्त से ऐसी व्यक्तिगत मुलाकात हमारे लिए भी संभव है। हम जो उनके मुखमंडल की खोज करते हैं हम उन्हें गरीबों के चेहरे में, बीमारों, परित्यक्त और परदेशियों में पा सकते हैं जिसे ईश्वर हमारी राहों में लाते हैं। यह मुलाकात हमारे लिए कृपा और मुक्ति का स्रोत बनती है क्योंकि यह हमें शिष्यों की भांति प्रेरिताई कार्यों को करने हेतु निर्देशित करती है। येसु से हमारी मुलाकात और प्रेरिताई अलग-अलग नहीं हैं।

दूसरे से मिलन ईश्वर से मिलन

संत पापा ने कहा कि आज मैं लम्मेदूसा की अपनी प्रेरितिक यात्रा की सातवीं सालगिरह मनाता हूँ। ईश वचनों के प्रकाश में मैं पुनः अपने उन वचनों को दुहराना चाहता हूँ जिसे मैं पिछले साल फरवरी के महीने में कहा था, “भय से मुक्त हो”, “दूसरों से मिलन हमारे लिए ईश्वर से भी मिलन है। येसु स्वयं इस बात को कहते हैं। वे हमारे घर के द्वार को भूखे, प्यासे, नंगे, बीमारों, कैदियों के रुप में खटखटते हैं और हमसे मिलने आते और हमसे मदद की मांग करते हैं। संत पापा ने कहा कि यदि हम अब भी संदेह करते हों तो हमारे लिए ये उनके वचन हैं, “मैं तुम से कहता हूँ जो कुछ तुमने मेरे इन भाइयों में से किसी एक के लिए, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया” (मत्ती.25.40)।

“जो कुछ भी किया... ” चाहे अच्छा या बुरा। यह चेतावनी आज हमारे लिए मुख्य विषय है। यह मूलभूत तथ्य, हम जो कुछ भी करें वह हमें अंतःकरण की जांच हेतु मदद करे। संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि मैं लीबिया, नजरबंदी शिविरों, प्रवासियों जो दुराचार औऱ हिंसा का शिकार होते, आशा की यात्राओं, बचाव कार्य में संलग्न दल और धक्का-मुक्की के बारे में सोचता हूँ। “जो कुछ तुमने किया...मेरे लिये किया”।

खबरें “छन” कर आती हैं

संत पापा फ्रांसिस ने सात साल पहले प्रवासियों से की गई अपनी मुलाकात के अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि लम्पेदूसा के द्वीप में बहुतों ने अपने जीवन की घटनाओं का जिक्र किया। लेकिन उनके ऊपर होने वाली घटनाएं हमारे बीच पूरी तरह उभर कर नहीं आती हैं। हमारे लिए कुछेक बातों का जिक्र किया जाता है जो खबर में “छनकर” प्रकाशित होता है। हम सभी जानते हैं कि युद्ध अपने में बुरा है लेकिन हम इसमें फंसे, अवरोध के शिकार लोगों की नरकीय स्थिति की कल्पना नहीं कर सकते हैं। वे लोग आशा में समुद्र पार कर आये हैं।

माता मरियम जो “प्रवासियों की सांत्वना या सहारा” है, हमें अपने बेटे येसु ख्रीस्त के चेहरे को, हमारे भाई-बहनों में खोजने हेतु मदद करें, जो अपने सरजमीं से पलायन हेतु बाध्य हैं क्योंकि विश्व आज भी बहुत सारे अन्यायों से ग्रसित है।

 

08 July 2020, 13:40
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