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संत पापाः साक्ष्य सुसमाचार का प्रथम रुप

संत पापा फ्रांसिस ने बुधवारीय धर्मशिक्षा माला में जीवन के द्वारा दिये जाने वाले साक्ष्य को सुसमाचार का प्रथम रुप बतलाया।

दिलीप संजय एक्का-वाटिकन  सिटी

संत पापा फ्रांसिस ने अपने बुधवारीय आमदर्शन समारोह के अवसर पर संत पेत्रुस के महागिरजाघर के प्रांगण में एकात्रित सभी विश्वासियों और तीर्थयात्रियों को संबोधित करते हुए कहा, प्रिय भाइयो एवं बहनों, सुप्रभात।

साक्ष्य ही सुसमाचार

आज हम सुसमाचार प्रचार के वर्तमान संदर्भ में “मान्य कार्ता” के बारे में सुनेंगे जो संत पापा पौल 6वें के प्रेरितिक प्रबोधन एभेजेली न्यूसेंदी से संबंधित है। इसे सन् 1975 में लिखा गया लेकिन ऐसा प्रतीत होता है मानो यह कल ही लिखा गया हो। सुसमाचार का प्रचार अपने में साधारण धर्मशिक्षा और नौतिक शिक्षा से बढ़कर है। यह प्रथम स्थान में येसु खीस्त से व्यक्तिगत मिलन का साक्ष्य है, साक्ष्य के बिना सुसमाचार का प्रचार नहीं हो सकता है, हम उस शब्द का साक्ष्य देते जिसने शरीरधारण किया जिसमें मुक्ति भरी है। यह अपरिहार्य साक्ष्य है क्योंकि सर्वप्रथम “संसार को सुसमाचार प्रचारकों की आवश्यकता है जो ईश्वर के बारे में कहते हैं जिनके बारे में वे स्वयं जानते और जिनसे वे व्यक्तिगत रुप में परिचित हैं (76), यह किसी विचारधारा या सिद्धांत को – जो ईश्वर के बारे में हो बतलाना नहीं है, बल्कि यह ईश्वर को प्रसारित करना है जो मुझमें जीवन का कारण बनते हैं, और इससे भी बढ़कर आधुनिक मानव शिक्षकों की अपेक्षा साक्ष्यों को स्वभाविक रुप में सुनता है, और यदि वह शिक्षकों को सुनता है तो उनके साक्ष्यों के कारण।” ख्रीस्त का साक्ष्य इस भांति सुसमाचार प्रचार का प्रथम माध्यम है, और इसकी प्रभावकारिता के लिए एक आवश्यक शर्त, जिससे सुसमाचार की घोषणा फलप्रद हो सकें।

साक्ष्य में विश्वास की जीवन

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि हमें इस बात को भी आवश्यक रुप से याद रखने की जरुरत है कि साक्ष्य अपने में विश्वास की घोषणा को सम्मिलित करता है कहने का अर्थ पिता ईश्वर, पुत्र और पवित्र आत्मा ईश्वर में अटल विश्वास जिन्होंने हमारी सृष्टि की और जिन्होंने अपने प्रेम के कारण हमें मुक्ति प्रदान किया। एक विश्वास हममें परिवर्तन लाता है, यह हमारे संबंधों में सुधार लाता है, हमारे कार्य करने के तरीकों और गुणों को हमारे जीवन में निर्धारित करता है। साक्ष्य, अतः उस तथ्य पर विश्वास और उसकी घोषणा करने वाले के बीच की निरंतरता को जिसे व्यक्ति जीता है अलग नहीं किया जा सकता है। एक विश्वासी होना सिर्फ एक धर्मसिद्धांत या विचारधारा की घोषणा करना नहीं है। यह एक व्यक्ति के विश्वास और उसके जीवन जीने के बीच समाजंस्य है, विश्वास करना और उसे जीवन में जीना। बहुत से ख्रीस्तीय विश्वास करने की बात कहते लेकिन वे उसे नहीं जीते हैं, और यह पाखंडता है। यह साक्ष्य के विपरीत है।

तीन मूलभूत सवाल

संत पापा फ्रांसिस ने कहा कि हममें से प्रत्येक जन को तीन मूलभूत सवाल का उत्तर देने की जरुरत है जिसे संत पापा पौल 6वें हमारे बीच रखा है- आप जिस बात की घोषणा करते हैं क्या उसमें विश्वास करते हैंॽ क्या आप उस विश्वास को जीते हैंॽ आप जिस बात की शिक्षा देते क्या उसे जीते हैंॽ हम बने बनाये उत्तरों से अपने को संतुष्ट नहीं कर सकते हैं। हम अपने में जोखिम उठाने हेतु आमंत्रित किये जाते हैं, यहाँ तक कि अपनी खोज को अस्थिर करते हुए पवित्र आत्मा में पूर्णरूपेण विश्वास करने हेतु बुलाये जाते हैं जो हम सभों में क्रियाशील हैं, जो हमें अपनी सीमाओं से परे, हमारी कमजोरियों, तुत्रियों से परे ले चलते हैं।   

सुसमाचार पवित्रता में प्रस्फूटित

इस अर्थ में, एक सच्चा ख्रीस्तीय जीवन अपने में पवित्रता की एक यात्रा बनती है जो बपतिस्मा में आधारित है, जो “हमें ईश्वरीय दिव्यता के भागीदार बनाता है, इस भांति वे वास्तव में पवित्र बनते हैं” (Lumen gentium, 40)। यह एक पवित्रता है जो कुछेक लोगों के लिए सुरक्षित नहीं है, यह ईश्वर का एक उपहार है जो हमें दिया जाता है और जिसे हम अपने लिए, साथ ही दूसरों के लिए फलहित बनाते हैं। ईश्वर ने हमें चुना और प्रेम किया है हमें इस प्रेम को दूसरों तक ले जाने की आवश्यकता है। संत पापा पौल 6वें अपनी शिक्षा में कहते हैं कि सुसमाचार का प्रचार पवित्रता से प्रस्फूटित होता है, यह उस हृदय से उत्पन्न होता है जो ईश्वरमय है। यह प्रार्थना के द्वारा पोषित होता और उससे भी बढ़कर परमप्रसाद में प्रेम के द्वारा, इसके बदले यह उन व्यक्तियों में पवित्रता की वृद्धि करता है जो सुसमाचार का प्रचार करते हैं (EN, 76)। वहीं पवित्रता के बिना, सुसमाचार प्रचारक के वचन आधुनिक मानव के हृदय का स्पर्श नहीं  करते” और “जोखिम बेकार और व्यर्थ होते हैं”।

सुसमाचार प्रचार स्वयं के लिए भी

अतः हमें इस बात से सचेत रहने की आवश्यकता है कि सुसमाचार प्रचार सिर्फ दूसरों के लिए नहीं है, जो अपने को विश्वास से अलग पाते या दूसरे धर्मों में विश्वास करते हैं, बल्कि यह हम सभों के लिए भी है, जो ख्रीस्त पर विश्वास करते और ईश्वर के वचन के प्रति सक्रिया हैं। हमें रोज दिन अपने में परिवर्तन लाने की जरुरत है, ईश वचन का जो हमारे जीवन को हर दिन बदलता है। इस साक्ष्य हेतु कलीसिया को चाहिए कि वह स्वयं अपने लिए सुसमाचार को प्रचारित होने दे। यदि कलीसिया में यह नहीं होता तो वह एक संग्रहालय की भांति रह जाती है इसके बदले हमें चाहिए कि हम अपने को निरंतर सुसमाचार प्रचार से नवीकृत करें। “कलीसिया को चाहिए कि वह बिना थके उन बातों को सुने, आशा के अपने कारणों को, प्रेम की नयी आज्ञा को जिन पर वह विश्वास करती है। कलीसिया वह ईश प्रजा है जो दुनियादारी में, बहुधा मूर्तिपूजा के प्रलोभन में डूबी है, उसे सदैव ईश्वर के कार्यों को सुनने की जरुरत है जिसे ईश्वर घोषित करते हैं। एक शब्द में, उसे सुसमाचार को लेते हुए प्रार्थना करने और पवित्र आत्मा की शक्ति का अनुभव करने की जरुरत है जो हृदयों में परिवर्तन लाते हैं।

पवित्र आत्मा बिना सुसमाचार प्रचार, विज्ञापन मात्र

एक कलीसिया जो अपने में सुसमाचार को सुनती है जिससे वह सुसमाचार को प्रचारित कर सके, पवित्र आत्मा द्वारा संचालित होती है, निरंतर परिवर्तन और नवीनता की एक चुनौती पूर्ण मार्ग पर चलती है। यह इतिहास में सुसमाचार की उपस्थिति को समझने और उसके जीने के तरीकों को बदलने की क्षमता भी रखती है, वह “सदैव इस तरह से किया गया है” के तर्क को अपने में और उसमें शरण लेने से परहेज करती है। ऐसी कलीसिया ईश्वर की ओर पूर्णरूपेण अभिमुख होती, अतः वह मानव मुक्ति की परियोजना में सहभागिता का अनुसरण करती और पूरी तरह मानवता हेतु समर्पित होती है। ऐसी कलीसिया समकालीन दुनिया से संवाद करती है, भाईचारे के रिश्तों को बुनती है, जो मिलन हेतु स्थानों को तैयार करती है, आतिथ्य, स्वागत, मान्यता और दूसरों के संग एकता और अन्यों की अच्छी प्रथाओं को धारण करती है, साथ ही सामान्य घर की देखभाल करती है जो सृष्टि है। अर्थात कलीसिया दुनिया के संग वार्ता करती है, वह रोज दिन ईश्वर से भेंट करती और पवित्र आत्मा के नेतृत्व में सुसमाचार को घोषित करती है। पवित्र आत्मा के बिना हम कलीसिया के केवल विज्ञापन करेंगे, सुसमाचार प्रचार नहीं। यह पवित्र आत्मा हैं जो हमें सुसमाचार प्रचार हेतु प्रेरित करते हैं जहाँ हम अपने को ईश्वर की सच्ची संतानों के रुप में पाते हैं।

इतना कहने के बाद संत पापा फ्रांसिस ने अपनी धर्मशिक्षा के अंत में एंभनजेली न्युसेंदी को संत पापा पौल 6वें की अद्भुत कृति घोषित करते हुए इसे पढ़ने का निवेदन किया। तदोउपरांत उन्होंने सभों के संग हे पिता हमारे प्रार्थना का पाठ किया और सभों को अपना प्रेरितिक आशीर्वाद प्रदान किया।  

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22 March 2023, 15:33